Introduction to Guna (गुण) in Ayurveda
गुण का परिचय (Introduction to Guna)
परिभाषा (Definition)
वैशेषिक दर्शन: भाव पदार्थों में गुण को दूसरा स्थान दिया है। गुण द्रव्य में आश्रित रहता है।
चरक संहिता: षड् पदार्थों में गुण का तृतीय स्थान है।
आचार्य चरक: जो समवायी (किसी आश्रय का आश्रयी या किसी आधार का आधेय) हो, निश्चेष्ट (चेष्टारहित) और कारण हो, उसे गुण कहते हैं। (च.सू. 1/51)
‘गुण’ शब्द की व्युत्पत्ति
‘गुण आमंत्रणे’ इस धातु से ‘गुण’ शब्द की उत्पत्ति हुई है।
‘गुण’ शब्द की निरुक्ति
वाचस्पत्यम्: गुण्यते आमंत्र्यते लोके अनेन इति गुणः ।
शब्दकल्पद्रुम: गुण्यते मंत्र्यते इति गुणः। (शब्दकल्पद्रुम 2/333)
गुण के लक्षण
वैशेषिक दर्शन: दृव्याश्रव्यगुणवान् संयोग विभागयोर्नकारणमनपेक्ष इति गुण लक्षणम् । (वै.द. अध्याय 1, आन्हिक 1, सूत्र 16)
गुण के लक्षण हैं द्रव्य के आश्रय से रहने वाला, अगुणवान (गुणवाला न हो), संयोग और विभाग में कारण न हो। अनपेक्ष हो कर यह गुण का लक्षण है।
वह सदा द्रव्य में आश्रित रहता है।
अगुणवान – गुण का अपना कोई गुण नहीं होता। गुण स्वयं गुणरहित होता है। यह द्रव्य और गुण में अन्तर है। गुण न तो गुण में होता है और न ही कर्म में, गुण केवल द्रव्य में पाया जाता है।
संयोगविभागयोर्नकारणम् – गुण संयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण नहीं होता, परन्तु कर्म संयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण होता है। यही कर्म और गुण में अन्तर है।
संयोग विभाग का साक्षात कारण नहीं है।
आचार्य चक्रपाणि का स्पष्टीकरण
- समवायी (समवायाधेय) जो आधेय हो अर्थात् जो किसी के अश्रित रहता हो। गुण द्रव्य में अश्रित रहता है, द्रव्य किसी का आश्रयी नहीं होता।
- निश्चेष्ट (निर्गतश्चेष्टाया निश्चेष्टः) जिसमें चेष्टा न हो उसे निश्चेष्ट कहा जाता है। इस तरह चेष्टा युक्त कर्म से गुण भिन्न है।
क्रिया धारक मूर्त द्रव्यों से भी भिन्त्र सिद्ध होता है।
गुण अपने समान गुणों की वृद्धि में असमवायि कारण है। सामान्य, विशेष और समवाय कारण नहीं होते, अतः गुण इनसे भिन्न है।
कारण
प्रशस्तपाद: गुणत्वजातिमत्वमिति गुणसामान्यलक्षणम् ।
कारिकावली: अथ दृव्याश्रिता ज्ञेया निर्गुणा निष्क्रिया गुणाः।
रसवैशेषिक के अनुसार
विश्वलक्षणा गुणाः। (रस वैशेषिक सूत्र 1/16)
के निम्न लक्षण होते हैं:
- द्रव्य में आश्रित है
- गुणरहित है
- कर्म रहित है
- अपने कार्य का असमवायि कारण है और
- उसके लक्षण विश्व की तरह विकीर्ण है।
गुण का वर्गीकरण (Classification of Guna)
न्याय और वैशेषिक दर्शन के अनुसार गुणों की संख्या
रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोग- विभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखखेच्छाद्वेषौ प्रयलाच गुणाः। (वै.द. अध्याय 1. आन्हिक 1, सूत्र 6)
वैशेषिक दर्शन ने 17 गुणों का वर्णन किया है: रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न। प्रशस्तपादभाष्य (वैशेषिक दर्शन का भाष्य) ने ‘प्रयत्लास्च’ से गुरूत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द – ये 7 गुण अतिरिक्त माने हैं। इस तरह गुणों की कुल संख्या 24 है। न्याय दर्शन में गुणों के भिन्न-भिन्न सन्दर्भ हैं। न्यायदर्शन के भाष्यकारों ने गुणों का विस्तार से वर्णन किया है। तर्कभाषा ने 24 गुणों का वर्णन किया हैं: रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरूत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार।
चरक संहिता के अनुसार गुणों की संख्या
सार्धा गुर्वादयो बुद्धिः प्रयत्नान्ताः परादयः । गुणाः प्रोक्ताः
चरक संहिता ने कुल 41 गुण माने हैं:
- सार्थ गुण: 5
- गुर्वादि गुण: 20
- बुद्धि प्रयत्नान्ता (आध्यात्मिक गुण): 6
- परादि गुण: 10
सार्थ गुण (Sensory Qualities)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को सार्थ गुण कहते हैं।
(1) शब्द (Sound)
श्रोत्रग्राह्यो गुणः शब्दः। आकाशमात्र वृत्ति । स च द्विविधः ध्वन्यात्मको वर्णात्मकश्चेति ।। तत्र ध्वन्यात्मको भेर्यादौ । वर्णात्मकः संस्कृत भाषादि रूपः ।। (तर्कसंग्रह 33)
• जिस गुण को श्रोत्रेन्द्रिय से जाना जाए उसे शब्द कहते हैं।
• शब्द गुण केवल आकाश महाभूत में होता है।
• शब्द के दो भेद हैं: (1) ध्वन्यात्मक (2) वर्णात्मक
(2) स्पर्श (Touch)
त्वगेन्द्रियमात्रग्राह्यो गुणः स्पर्श । स च त्रिविधः शीतोष्णा- नुष्णशीतभेदात् । पृथ्वी आप तेजो वायुवृत्तिः तत्र शीतोजले । उष्णः तेजसि अनुष्णशीतः पृथ्वी वाय्वोः । – तर्कसंग्रह
• स्पर्श के तीन भेद हैं:
(1) शीत स्पर्श,
(2) उष्ण स्पर्श और
(3) अनुष्णशीत स्पर्श ।
• स्पर्श गुण पृथ्वी, जल, तेज और वायु महाभूतो में पाया जाता है।
(3) रूप (Form/Color)
चक्षुर्मात्रग्राह्यो गुणो रूपम् ।
तच्च शुक्लनीलपीतरक्त हरितकपिशचित्रभेदात्सप्तविधं पृथिवीजलतेजोवृत्ति । तत्र पृथिव्यां सप्तविधं। अभास्वरं शुक्लं जले। भास्वरं शुक्लं च तेजसि ।। – तर्कसंग्रह 19
• जिस गुण को केवल चक्षुरेन्द्रिय से जाना जाता है उसे रूप कहते हैं।
• रूप के सात भेद हैं: (1) शुक्ल, (2) नील, (3) पीत, (4) रक्त, (5) हरित, (6) कपिश और (7) चित्र।
• रूप गुण पृथ्वी, जल और तेज महाभूतो में पाया जाता है।
(4) रस (Taste)
रसनाग्राह्यो गुणो रसः । स च मधुरम्ललवणकटु- कषायतिक्तभेदात षड्विधः । पृथ्वीजलवृत्तिः । तत्र पृथ्वी षड्विधः । जले मधुर एव च ।। – तर्कसंग्रह 20
• जिस गुण को केवल रसनेन्द्रिय से जाना जाता है उसे रस कहते हैं।
• रस के छः भेद होते हैं: (1) मधुर, (2) अम्ल, (3) लवण, (4) कटु, (5) कषाय और (6) तिक्त।
• रस गुण पृथ्वी और जल महाभूतो में पाया जाता है।
• पृथ्वी महाभूत में पूरे छः रस होते हैं। जल में केवल मधुर रस होता है।
(5) गन्ध (Smell/Odor)
घ्राणग्राह्यो गुणो गन्धः । स च द्विविधः सुरभिः असुरभिश्च ।
पृथ्वीमात्रवृत्ति ।। – तर्कसंग्रह
• जिस गुण को घ्राणेन्द्रिय से जाना जाता है उसे पृथ्वी कहते हैं।
• गन्ध के दो भेद होते हैं: (1) सुरभि (सुगन्ध) और (2) असुरभि (दुर्गन्ध) ।
• गन्ध गुण केवल पृथ्वी महाभूत में पाया जाता है।
गुर्वादि गुण (Physiological Qualities)
पर्याय- शारीर गुण, शारीरिक गुण, सामान्य गुण, कर्मण्य गुण
द्रव्यों में रहने वाले 20 गुर्वादि गुण मनुष्य के शरीर में भी रहते हैं। इसी कारण शरीरस्थ दोष, धातु एवं मलों की क्षय, वृद्धि और स्थिति भी इन्हीं द्रव्यों के सेवन से होती है।
गुर्वादि गुणों के नाम
विंशतिगुणः, गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरसरम्- दुकठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखर सूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्वानुगमात् । (च.सू.25/36)
गुरुमन्दहिमस्निग्धश्लक्ष्णसान्द्र मृदुस्थिराः । गुणाः ससूक्ष्मविशदा विंशति सविपर्ययाः ।। (अ.हृ.सू. 1/18)
गुर्वादि गुणों के दस द्वन्द्व
- गुरू x लघु
- मन्द x तीक्ष्ण
- शीत x उष्ण
- स्निग्ध x रूक्ष
- श्लक्ष्ण x खर
- सान्द्र x द्रव
- मृदु x कठिन
- स्थिर x चल
- सूक्ष्म x स्थूल
- विशद x पिच्छिल
(1) गुरु (Heaviness)
व्याख्या: यस्य द्रव्यस्य बृंहणे शक्तिः स गुरुः । (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण में शरीर में बृंहण (पोषण) कर्म करने की शक्ति होती है, उसे गुरु गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: गौरवं पार्थिवमाप्यं च । (र.वै.सू.3/116)
गुरु गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है।
गुणकर्म: सादोपलेपबलकृद् गुरुस्तर्पणबृंहणः । (सु.सू. 46/518)
गुरुवातहरं पुष्टिश्लेष्मकृच्चिरपाकी च। (भावप्रकाश)
• बलकृद् – शरीर को बल (strength) प्रदान करता है।
• तर्पण – शरीर को तर्पित करता है।
• बृंहण – शरीर का पोषण (nutrition) करता है।
• वातहर – वात का शमन करता है।
(2) लघु (Lightness)
व्याख्या: लंघने लघु । (अ.ह.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिससे शरीर में लघुता या हल्कापण उत्त्पन्न हो, उस गुण को लघु गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: लघुनि हि दृव्याणि वाय्वग्निगुणबहुलानि भवन्ति । (च.सू. 5/6)
लघु गुणयुक्त द्रव्यों में वायु और अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है।
गुणकर्म: लघुस्तद्विपरीतः स्याल्लेखनो रोपणस्तथा । (सु.सू. 46/519) (लेखन पत्तलीकरणः डल्हण)
भावप्रकाश लघु पथ्यं परं प्रोक्तं कफघ्नं शीघ्रपाकि च।
• लेखन- शरीर को कृश करने वाला। (scraping)
• रोपण – व्रण का रोपण करने वाला। (healing)
• पथ्य – लघु गुण परम् पथ्य है।
• कफघ्न – कफ का शमन करता है।
• शीघ्रपाकि – शीघ्रता से पचन होने वाला। (easily digestible)
उदाहरण: शालि चाँवल, मुद्रा, तक्र, कपिंजल पक्षी मांस आदि।
(3) शीत (Coldness)
व्याख्या: स्तम्भने हिम। (अ.हृ.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में स्तम्भन कार्य उत्त्पन्न हो, उस गुण को शीत गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: शीत गुणयुक्त द्रव्यों में जल महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)
गुणकर्म: ह्लादनः स्तम्भनः शीतो मूर्च्छातृट्स्वेददाहजित्। (सु.सू. 46/515)
• ह्लादन – मन को आह्लादित या प्रसन्न करने वाला। (sense of pleasure)
• स्तम्भन – शरीर के भावों को स्तम्भित (रोकना) करने वाला। (cessation)
• शीत – शरीर में शीतलता लाने वाला। (cold)
• मूर्च्छाजित् – मूर्च्छा को दूर करने वाला। (remove unconciousness)
• तृषाजित् – तृष्णा को दूर करने वाला। (quench thirst)
• स्वेदजित् – स्वेद को दूर करने वाला।
• दाहजित – दाह को जितने वाला।
उदाहरण: चन्दन, कमल, नारिकेल, उशीर आदि।
(4) उष्ण (Hotness)
व्याख्या: स्वेदने उष्णः । (अ.हृ.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में स्वेदन कार्य उत्त्पन्न हो, उस गुण को उष्ण गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: उष्ण गुणयुक्त द्रव्यों में अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)
गुणकर्म: उष्णस्तद्विपरीत स्यात् पाचनश्च विशेषतः । शीतशूलव्युपरमे स्तम्भगौरवनिग्रहे। संजाते मार्दवे स्वेदे स्वेदनाद्विरतिर्मता ।। (च.सू. 14/13) (सु.सू. 46/515) (स्वेद इति स्वेदभवे घर्मे)
• पाचन – उष्ण गुण पाचन करने वाला है। (digestion)
उपरोक्त चरकोक्त श्लोक स्वेद के गुणों का है। स्वेद के कर्मों का कारण उसके भीतर छिपी उष्णता है।
• शीतव्युपरम – शीत को कम करने वाला। (pacifies cold)
• शूलव्युपरम – शूल को कम करने वाला। (pacifies pain)
• स्तम्भनिग्रहण – स्तम्भ को दूर करने वाला। (removes stiffness)
• गौरवनिग्रहण – गौरवता को दूर करने वाला।
(5) स्निग्ध (Oleaginous/Unctuous)
व्याख्या: क्लेदने स्निग्ध। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में क्लेद (गीलापन) उत्त्पन्न हो, उस गुण को स्निग्ध गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: पृथिव्यम्बुगुणभूयिष्ठः स्नेहः । (सु.सू.41/15)
स्निग्ध गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है।
रूक्ष गुण से बढ़े हुए वातिक व्याधियों में स्निग्ध गुणात्मक द्रव्यों से चिकित्सा की जाती है। उदाहरण: रुक्षता के कारण उत्पन्न त्वक्दरण में स्निग्ध गुणात्मक घृत या तैल से स्नेहन अपेक्षित है।
कहाँ वर्जित है?
• स्निग्धताजन्य व्याधियों में।
• मेदस्वी पुरुषों में।
• नित्यमन्दाग्नि वाले पुरूष में।
• तृष्णा, मूर्च्छा से ग्रसित व्यक्ति में।
उदाहरण: घृत, तैल, वसा, मज्जा, तिल आदि।
गुणकर्म: स्नेह मार्दवकृत् स्निग्धो बलवर्णकरस्तथा। (सु.सू. 46/515)
स्निग्धं वातहरं श्लेष्मकारि वृष्यं बलावहम्। (भावप्रकाश)
• मार्दवकृत्- स्निग्ध गुण के द्रव्य शरीर में मृदुता लाते हैं।
• बलकर – स्निग्ध गुण बल को बढ़ाता है।
• वर्णकर – वर्ण को ठीक करता है।
• वातहर – वात को कम करने वाला।
• श्लेष्मकारि – कफ को बढ़ाता है।
• वृष्य – स्निग्ध गुण वाजीकर है।
(6) रूक्ष (Dryness)
व्याख्या: शोषणे रूक्षः। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में शोषण का कार्य होता है, उसे रूक्ष गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: रूक्ष गुणयुक्त द्रव्यों में वायु महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू. 26/11)
गुणकर्म: रूक्षः शोषणलेखनः। (सु.सू. 46/516)
• शोषण – रूक्ष गुण शरीर के क्लेद का शोषण करता है।
• लेखन – रूक्ष गुण शरीर का लेखन करता है।
उदाहरण: यव, जौ, मूंग, कुलथी आदि।
(7) मन्द (Slowness/Dullness)
व्याख्या: जड़त्वे मन्दः। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में जड़ता (चेतनाहीनता) उत्पन्न होती है, उसे मन्द गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: मन्द गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू. 26/11)
गुणकर्म: मन्दः स्तम्भनः। (सु.सू. 46/517)
• स्तम्भन – मन्द गुण शरीर के वेगों को रोकता है।
उदाहरण: मधुर द्रव्य, तैल, घृत आदि।
(8) तीक्ष्ण (Sharpness/Penetrating)
व्याख्या: छेदने तीक्ष्णः। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में छेदन का कार्य होता है, उसे तीक्ष्ण गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: तीक्ष्ण गुणयुक्त द्रव्यों में अग्नि, वायु और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू. 26/11)
गुणकर्म: तीक्ष्णो विद्रावणः। (सु.सू. 46/520)
• विद्रावण – तीक्ष्ण गुण शरीर के मलों को पिघलाता है।
उदाहरण: क्षार, लवण, मद्य आदि।
(9) स्थिर (Stability/Immobility)
व्याख्या: धारणे स्थिरः। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में धारण का कार्य होता है, उसे स्थिर गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: स्थिर गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू. 26/11)
गुणकर्म: स्थिरो बन्धनः। (सु.सू. 46/521)
• बन्धन – स्थिर गुण शरीर के अवयवों को बाँधता है।
उदाहरण: प्रवाल, मुक्ता, केला आदि।
(10) सर (Mobility/Fluidity)
व्याख्या: प्रेरणे चलः (सरः) । (अ.हृ.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण प्रेरण कर्म होता है, उस गुण को सर गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: सर गुणयुक्त द्रव्यों में जल महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)
गुणकर्म: सरोह्यनुलोमनः प्रोक्तः । (सु.सू.46/522)
• अनुलोमनः – सर गुण वात और मल को प्रवृत्त करता है।
चिकित्सीय महत्व: सर गुणात्मक द्रव्य उदावर्त में उपयुक्त है।
कहाँ वर्जित है?
• अतिसार की अवस्थाएँ।
• क्षय की अवस्था में।
उदाहरण: हरीतकी, त्रिवृत्त, सनायपत्र, आदि।
(11) मृदु (Softness)
व्याख्या: श्लथने मृदु। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शिथिलता आती है, उस गुण को मृदु गुण कहते हैं। (च.सू. 26/11)
महाभूत प्राधान्य: मृदु गुणयुक्त द्रव्यों में जल और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है।
गुणकर्म: मृदु गुण शरीर भावों में मृदुता उत्पन्न करता है।
उदाहरण: घृत, तेल, वसा, मज्जा, गोधूम आदि।
(12) कठिन (Hardness)
व्याख्या: दृढ़ीकरणे कठिण। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में दृढ़ता उत्पन्न होती है, उस गुण को कठिण गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: कठिण गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)
गुणकर्म:
• दृढ़ीकरण – कठिण गुण शरीर को दृढ़ करता है।
• कठिण द्रव्य वात की वृद्धि और कफ का क्षय करते हैं।
उदाहरण: प्रवाल, शंख, शुक्ति, मुक्ता आदि।
(13) विशद (Clarity/Transparency)
व्याख्या: क्षालने विशदः । (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में निर्मलता या स्वच्छता उत्पन्न होती है, उस गुण को विशद गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: चरक संहिता के अनुसार विशद गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी, वायु और अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू. 26/11)
गुणकर्म: विशदो विपरीतोऽस्मात् क्लेदाचूषण रोपणः । (सु.सू.46/517)
• क्लेदाचूषण – विशद गुण शरीर के क्लेद का आचूषण कर शरीर को निर्मल बनाता है।
• रोपण – विशद गुण व्रण के रोपण में सहायक है।
उदाहरण: मुद्ग, मद्य, निम्ब, तक्रपिण्ड आदि।
(14) पिच्छिल (Sliminess)
व्याख्या: लेपने पिच्छिलः। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में लेपन कर्म होता है, उस गुण को पिच्छिल गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: पिच्छिल गुणयुक्त द्रव्यों में जल महाभूत की प्रधानता होती है।
गुणकर्म: पिच्छिलो जीवनो बल्यः सन्धानः श्लेष्मलो गुरुः ।
• श्लेष्मलो – कफ को बढ़ाता है।
• गुरु – गौरवता उत्पन्न करता है।
उदाहरण: ईसबगोल, गुग्गुलु, मूसली आदि।
(15) श्लक्ष्ण (Smoothness)
व्याख्या: रोपणे श्लक्ष्णः। (अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका)
जिस गुण के कारण शरीर में रोपण का कार्य होता है, उस गुण को श्लक्ष्ण गुण कहते हैं।
महाभूत प्राधान्य: चरक संहिता के अनुसार श्लक्ष्ण गुणयुक्त द्रव्यों में आकाश महाभूत की प्रधानता होती है। (च.सू.26/11)
गुणकर्म: श्लक्ष्णः पिच्छिलवज्ञेयः । (सु.सू. 46/521)
श्लक्ष्णः स्नेहं विनाऽपिस्यात् कठिनोऽपि हि चिक्कणः।
श्लक्ष्ण गुण को पिच्छिल गुण के समान ही जानना चाहिए।
• सन्धानः – अस्थिभग्न को जोड़ता है।
• श्लेष्मलो – कफ को बढ़ाता है।
• गुरु – गौरवता उत्पन्न करता है।
पिच्छिल गुणात्मक द्रव्य स्नेहयुक्त होते हैं, किन्तु श्लक्ष्ण गुणात्मक द्रव्य स्नेह रहित होते हैं। श्लक्ष्ण द्रव्य कठिण होते हैं और उनमें चिकनापन होता है।
उदाहरण: प्रवालपिष्टी, मुक्ता, यष्टिमधु, अभ्रक आदि।
(16) खर (Roughness)
व्याख्या
मुक्ता
लेखने खरः ।-अ.ह.यू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका जिस गुण के कारण शरीर में लेखन का कार्य होता है, उस गुण को खर गुण कहते हैं।
• महाभूत प्राधान्य
चरक संहिता के अनुसार खर गुणयुक्त द्रच्यों में पृथ्वी और वायु महाभूत की प्रधानता होती है। च.मू.26/11
गुषकर्म
खर गुण शरीर का लेखन करता है।
धातुओं का क्षय करता है।
मलमूत्र का शोषण करता है।
शरीर में कर्कशता उत्पन करता है।
यह बात दोष की वृद्धि करता है और कफ का क्षय करता है।
उदाहरण
कमलदण्ड, यव, करंज आदि।
(17) सूक्ष्म (Subtle)
व्याख्या
विवरणे सूक्ष्मः । अड.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका
जिस गुण के कारण शरीर में विवरण (स्रोतसों को विस्तृत करना) का कार्य होता है, उस गुण को सूक्ष्म गुण कहते हैं।
• महाभूत प्राधान्य
सूक्ष्म गुणयुक्त द्रव्यों में अग्नि, वायु और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है।-च.सू.26/11
गुणकर्म
शुभ विजानी
सूक्ष्यस्तु सौक्ष्म्यात् सूक्ष्मेषु स्रोतः स्यनुसरः स्मृतः।
सूक्ष्म गुणयुक्त दृष्य अपनी सूक्ष्मता से शरीर के सूक्ष्म सोतों में प्रवेश कर सकते है।
सूक्ष्म गुण आशुकार्य करने वाला होता है।
सूक्ष्म गुणात्मक दृत्य लघुपाकी होता है।
•
उदाहरण
मद्य, पारद, लवण, गुग्गुलु आदि।
लवण
(18) स्थूल (Bulkiness)
व्याख्या
संवरणे स्थूलः।-अ.हृ.सू.1/18 पर हेमाद्रिटीका
जिस गुण के कारण शरीर में संवरण (स्रोतसों का संकुचन) का कार्य होता है, उस गुण को स्थूल गुण कहते हैं।
• महाभूत प्राधान्य
चरक संहिता के अनुसार स्थूल गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी महाभूत को प्रधानता होती है। च.सू.26/11
गुणकर्म
स्थूल गुण शरीर में स्थौल्य की उत्पत्ति करता है।
स्थूल गुण स्रोतावरोध का कार्य करता है।
स्थूल गुण स्रोतसों का संकुचन करता है।
सचित्र पदार्थ विज्ञान :
अत्यग्नि की अवस्था में स्थूल गुणात्मक दृष्यों का प्रयोग किया जा सकता है।
उदाहरण
श्रीखंड, उड़द, माहिष दुग्ध आदि।
माष ()
बन्धकारकः सान्द्र गुण शरीर के अवयवों का बन्धन करण है। आचार्य डलहण ने बन्धकारक को उपचयकारक कहा है।
उदाहरण
मलाई, दही, मक्खन आदि।
माहिष दुग्ध (
(19) सान्द्र )
• व्याख्या
प्रसादने सान्द्र।-अ.हृ.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका जिस गुण के कारण शरीर में प्रसादन (आह्लादन) का कार्य होता है, उस गुण को सान्द्र गुण कहते हैं।
• महाभूत प्राधान्य
तत्र सान्द्रं पार्थिवम्। सु.सू.41/3
सान्द्र गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है।
• गुणकर्म
सान्द्रः स्थूलः स्याद् बन्धकारकः । सुम् स्थूलः सान्द्र गुण शरीर को स्थूल बनाता है।
मक्खन ()
(20) दूब ()
व्याख्या
विलोडने दूव। अड.सू. 1/18 पर हेमाद्रिटीका
जिस गुण के कारण शरीर में विलोडन (व्याप्त करना या फैलाना) का कार्य होता है, उस गुण को द्रव गुण कहते हैं। • महाभूत प्राधान्य
चरक संहिता के अनुसार द्रव गुणात्मक द्रव्यों में जल महाभूत
की प्रधानता होती है। च.सू.26/11 द्रव गुणयुक्त द्रव्यों में पृथ्वी, जल और अग्नि महाभूत को प्रधानता होती है।
द्रवत्व के दो भेद होते हैं सांसिद्धिक और नैमित्तिक। सांसिद्धिक द्रवत्व जल महाभूत में।
नैमित्तिक द्रवत्व अग्नि और पृथ्वी महाभूत में।
गुणकर्म
द्रवः प्रक्लेदनः। सु.सू. 46/520
प्रक्लेदन द्रव गुण क्लेद उत्पत्ति (आर्द्रता) का कार्य करता है।
• उदाहरण
जल, दूध, दही, इक्षुरस आदि।
करता
है।
जल
दूध
विशेष सुश्रुत संहिता के अनुसार शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, तीक्ष्ण, पिच्छिल और विशद ये आठ वीर्य संज्ञक गुण हैं।
• तीक्ष्ण और उष्ण गुण आग्नेय हैं, शीत और पिच्छिल गुण जल भूयिष्ट हैं। स्निग्ध गुण में पृथ्वी और जल की अधिकता होती है, मृदु गुण में जल और आकाश की अधिकता होती है, रूक्ष गुण में वायु की अधिकता होती है, और विशद गुण में पृथ्वी और वायु तत्त्व की अधिकता होती है।
• उष्ण और स्निग्ध गुण वातनाशक होते हैं। शीत, मृदु और पिच्छिल गुण पित्तशामक होते हैं। तीक्ष्ण, रूक्ष और विशद गुण कफ का शमन करते हैं। गुरू गुण वात और पित्त का शमन करता है और लघु गुण कफ का शमन करता है।
• मृदु, शीत और उष्ण गुण स्पर्शनन्द्रिय द्वारा ग्राहा है। पिच्छिल और विशद गुण चक्षु और स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं। स्निग्ध और रूक्ष गुण चक्षुरेन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं। तीक्ष्ण गुण मुख में दुःख के उत्पन्न करने से जाना जाता है। मल और मूत्र के त्याग से और कफ के द्वारा उत्क्लेश करने से गुरूपाक को
जाना जाता है। मल और मूत्र के विबन्ध से और वात के प्रकुपित होने से लघुविपाक को जाना जाता है।
आध्यात्मिक गुण
पर्याव
आत्म गुण, बुद्धि आदि गुण, प्रयत्नान्ता गुण।
आध्यात्मिक गुणों के नाम
आध्यात्मिक गुण 6 होते हैं मुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, देष और प्रयत्न।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं प्रयत्नश्चेतना वृतिः । बुद्धि स्मृत्यहंकारो लिंगानि परमात्मनः 11 च.सा.1/72
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, प्रयत्न, चेतना, धृति, बुद्धि, स्मृति और अहंकार ये आत्मा के गुण है। आचार्य शिवदास सेन ने चेतना, धृति, स्मृति और अहंकार को बुद्धि में ही समाविष्ट किया है। अतः आत्मगुण 6 ही होते हैं।
आध्यात्मिक गुणों का विस्तार से वर्णन
(1) बुद्धि (
व्याख्या
तर्कसंग्रह के अनुसार
सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम्।
तर्कसंग्रह
सभी व्यवहारों का जो हेतुभूत गुण है अर्थात् जिस गुण के कारण सभी व्यवहार होते हैं, उसे बुद्धि गुण कहते हैं।
सांख्यदर्शन के अनुसार
अध्यवसायो बुद्धिः । सांख्यकारिका 23
बुद्धि अध्यवसाय को कहते हैं, यहाँ अध्यवसाय व्यवहार को
कहा गया है। बुद्धि के द्वारा ही कर्तव्य अकर्तव्य का निर्णय होता है।
आचार्य चक्रपाणि के अनुसार
बुद्धिशब्देन चेतनाधृतिस्मृत्यहंकाराः प्राप्यन्त एव बुद्धिप्रकारत्वेन, तथाऽपि पृथक्पृथगर्थगमकत्वेन पुनः पृथगुपात्तः । तथाहि चेतना गुणत्वेन अचेतनखादि- भूतातिरिक्तधर्मेणात्मनं गमयति, धृतिस्तु नियमात्मिका नियन्तारमात्मानं गमयति, बुद्धिस्तु ऊहापोहयोरेक कारणं गमयत्यात्मनं स्मृतिस्तु पूर्वानुभूतार्थस्मर्तारं स्थायिनमात्मानं गमयतीत्याद्यनुसरणीयम् ।
च.शा.1/72 पर चक्रपाणि टीका
‘बुद्धि’ शब्द से चेतना, धृति, स्मृति और अहंकार का तात्पर्य ग्रहण हो जाता है, क्योंकि ये बुद्धि के ही प्रकार है।
बुद्धि के भेद
बुद्धि
स्मृति
अनुभव
यथार्थ स्मृति
अयथार्थ स्मृति (अप्रभाजून्य)
यथार्थ
अयधार्थ
(प्रमादन्य)
अनुभव
अनुभव
संशय
विपर्यय
तर्क
प्रत्यक्ष
उपमिति
-रासन
श्रोत्रज
मानस
प्राणज
– चाक्षुस
स्पर्शन
अनुमिति
शब्दज
बुद्धि के दो भेद होते हैं (1) स्मृति और (2) अनुभव।
• स्मृति
संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः। तर्कसंग्रह संस्कार मात्र से प्राप्त ज्ञान को स्मृति कहते हैं। पहले किए गए अनुभव को कालान्तर से संस्कार द्वारा पुनः प्राप्त करना स्मृति है।
स्मृति के कारण
वक्ष्यन्ते कारणान्यष्टौ स्मृतिर्वैरूपजायते। निमित्त रूपग्रहणात् सादृश्यात् सविपर्ययात् ।। सत्त्वानुबन्धाभ्यासाज्ज्ञानयोगात् पुनः श्रुतात्। दृष्टश्रुतानुभूतानां स्मरणात् स्मृतिरुच्यते ।।
– च.शा.1/148-149 स्मृति के आठ कारण बताएँ गए हैं-1. निमित्त से, 2. रूप ग्रहण से, 3. सादृश्य से, 4. विपर्यय से, 5. सत्त्वानुबन्ध से,
6. अभ्यास से, 7. ज्ञानयोग से और 8. पुन श्रुति से।
2. रूपग्रहणात् – आकृति का ग्रहण करके स्मरण करना। उदा०- सन्धि की विषमाकृति देखकर सन्धिच्यूति का स्मरण करना।
3. सादृश्यात् समानता को देखकर स्मरण करना।
4. विपर्ययात् असमानता को देखकर स्मरण करना।
5. सत्त्वानुबन्धात् मन को ध्यानपूर्वक लगाकर स्मरण करना।
6. अभ्यासात् किसी विषय का अभ्यास कर उसका स्मरण किया जा सकता है।
7. ज्ञानयोगात् तत्त्वज्ञान से या ज्ञानयोग से किसी भी विषय का स्मरण किया जा सकता है।
8. पुनः श्रुतात् पूर्व में गये विषय का पुनः अल्पभाग भी सुनकर सम्पूर्ण विषय का स्मरण हो जाता है।
• अनुभव
स्मृति से अन्य ज्ञान को अनुभव कहते हैं। अनुभव के दो भेद हैं (1) यथार्थ अनुभव और (2) अयथार्थ अनुभव।
अयथार्थ अनुभव के तीन भेद हैं (1) संशय, (2)
विपर्यय और (3) तर्क।
हैं।
(2) सुख ()
तर्कसंग्रह के अनुसार
सर्वेषामनुकूलवेदनीयं सुखम्। त
आभा में अनुकूल संवेदना उत्पन करने वाले गुण को सुख कहते हैं।
प्रशस्तपाद के अनुसार
धर्मजन्यं अनुकूलवेदनीयं गुणः सुखम्।
अनुग्रहलक्षणं सुखम्। अनुग्रहस्वभावं तु सुखम् ।
– अनुग्रह जिसका लक्षण है, उसे सुख कहते हैं।
आचार्य डलहण के अनुसार
सुखं स्वभावतोऽनुकूलवेदनीयम् ।
अनुकूल वेदना को सुख कहते हैं। सु.शा. पर कल्हण टोका
(३) दुःख (Sorrow)
तर्कसंग्रह के अनुसार
प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् । – तर्कसंग्रह ।
प्रशस्तपाद के अनुसार
अधर्मजन्यं प्रतिकूलवेदनीयं गुणो दुःखम्।
उपधातलक्षणं दुःखम्। प्रशस्तपाद
न्यायदर्शन के अनुसार
अधर्ममात्रासाधारणको गुणः। बाधनालक्षणं दुखम् ।
– न्यायसूत्र अधर्म जिसका असाधारण गुण है, उसे दुःख कहते हैं। बाधना
लक्षण वाला दुःख है।
आचार्य डल्हण के अनुसार
दुःखं स्वभावतः प्रतिकूलवेदनीयम् ।
– सु.शा. 1/17 पर डल्हण टीका
प्रतिकूल वेदना को दुःख कहते हैं।
(4) इच्छा )
व्याख्या
तर्कसंग्रह के अनुसार
इच्छा कामः। तर्कसंग्रह
गुण विज्ञली
किसी वस्तु या विषय को प्राप्त करने की भावना की इच्छा
कहते हैं। सांख्य और वेदान्त दर्शन ने इसको मन का धर्म माना है। न्याय और वैशेषिक दर्शन ने इसे आत्मा का धर्म माना है।
प्रशस्तपाद के अनुसार
स्वार्थ परार्थ वाऽप्राप्त प्रार्थनेच्छा। प्रहस्तपाद
अपने या दूसरे के लिए अप्राप्त वस्तु की प्रार्थना या कामना
करना इच्छा है।
आचार्य डल्हण के अनुसार
इच्छा अभिलाषः। सु.शा. 1/17 पर डालाग टीका
इच्छा सातिशयोऽर्थाभिलाषः।
– सु.सू. 1/25(3) पर डलहाण टोका किसी विषय की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं।
(5) द्वेष (Malice)
व्याख्या
तर्कसंग्रह के अनुसार
क्रोधो द्वेषः । तर्कसंग्रह
क्रोध को द्वेष कहते हैं।
प्रशस्तपाद के अनुसार
प्रज्वलनात्मको द्वेषः । प्रशस्तपाद
जिसके कारण मनुष्य में प्रज्वलन का भाव उत्पन्न हो उसे द्वेष
कहते हैं।
आचार्य डल्हण के अनुसार
द्वेषोऽप्रीतिलक्षणः। सु.शा. 1/17 पर डल्हण टीका
अप्रीति को द्वेष कहा गया है।
(6) प्रयत्न ()
व्याख्या
तर्कसंग्रह के अनुसार
कृतिः प्रयत्नः । तर्कसंग्रह
कार्य प्रारम्भ करने की चेष्टा प्रयत्न कहलाती है।
प्रशस्तपाद के अनुसार
प्रयत्नः संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः। स द्विविधः
जीवनपूर्वकः, इच्छाद्वेषपूर्वकश्चेति । प्रशस्तपाद
प्रयत्न, संरम्भ और उत्साह ये पर्यायवाची शब्द है। प्रयत्न के दो
प्रकार होते हैं (1) जीवन पूर्वक प्रयत्न और (2)
इच्छा-द्वेष पूर्वक प्रयत्न।
• जीवन पूर्वक प्रयत्न स्वतः सम्पादित होने वाला प्रयत्न जो जीवन के लिये अनिवार्य है, जीवन पूर्वक प्रयत्न कहलाता
है। जैसे निद्रावस्था में भी हमारी श्वास-प्रश्वास को किया होती रहती है, इसे जीवन पूर्वक प्रयत्प कहते हैं। इच्छा द्वेषपूर्वक प्रयान अपने या दूसरों के हित के लिए
को चहा की जाती है, उसे इस पूर्वक प्रयान कहते हैं। दूसरों के अहित के लिए से चेहा की जाती है, उसे द्वेष पूर्वक प्रयान कहते हैं।
आचार्य अत्हण के अनुस्वार
प्रयत्नः कार्यारम्भे उत्साह सु.शा. 1/17 पर इलाम टीका कार्य आरम्भ करने से पूर्व के उत्साह को प्रयत्न कहते हैं।
परादि गुण
पर्याय- सामान्य गुण, प्रकृति गुण, साधारण गुण, चिकित्सा सिद्धि के उपाय, चिकित्सक गुण आदि।
परादि गुणों के नराम
परापरत्वे युक्तिश्च संख्या संयोग एव च। विभागश्च पृथकत्वं च परिमाणमथापि व।।
संस्कारोऽभ्यास इत्येते गुणा ज्ञेयाः परादयः। सिद्व्युपायाश्चिकित्साया लक्षणैस्तान् प्रचक्ष्महे ।।
चरक संहिता ने 10 परादि गुण माने हैं-
-पर () -अपर ()
-पुक्ति (
संख्या ()
• सयोग ()
• विभाग )
• पृथक्त्व ()
• परिमाण ()
• संस्कार ()
• अभ्यास ()
परादि गुणों का विस्तार से वर्णन
(1 & 2) पर और अपर
व्याख्या
परत्वं प्रधानत्वम् । च.सू.26/29 पर चक्रपाणि टोका
पर का अर्थ है प्रधान या श्रेष्ठ। अपरत्वम् अप्रधानत्वम् । अपर का अर्थ है अप्रधान या कनिष्ठ।
च.सू. 26/29 पर परत्व और अपरत्व दो प्रकार के हैं (1) दिक्कृत और (2) कालकृत।
अग्ग्र संग्रह भी पर गुण को ही सम्बोधित करता है।
(3) युक्ति
युक्तिश्च योजना या तु युज्यते । – च.सू. 26/31 युक्तिश्चेत्यादौ योजना दोषाद्यपेक्षया भेषजस्य समीचीनकल्पना, अत एवोक्तं – या तु युज्यते।
च.सू. 26/31 पर चक्रपाणि टीका युक्ति का अर्थ है योजना। दोषादि का विचार कर जो औषधी को सम्यक् कल्पना की जाती है, उसे योजना कहते हैं। या कल्पना यौगिकी भवति सा तु युक्तिरूच्यते। अयौगिकं तु कल्पनाऽपि सती युक्तिनॉच्यते, पुत्रोऽप्यपुत्रवत्।
च.सू.26/31 पर चक्रपाणि टीका जिस कल्पना को युक्तिपूर्वक (यौगिकी) किया जाता है, उसे युक्ति कहते हैं। जो कल्पना अयौगिक अर्थात् बिना युक्ति के की जाती है, वह कल्पना होते हुए भी ‘युक्ति’ नहीं कहलाती। बहुपपत्तियोगज्ञायमानानर्थान् या बुद्धिः पश्यति, ऊहलक्षणा सा युक्तिरिति प्रमाणसहायीभूता।
च.सू. 11/25 पर चक्रपाणि टीका बहुत से उपपत्तियों के योग से जानने योग्य अर्थों को जो बुद्धि देखती है, उसे युक्ति कहते हैं।
• चिकित्सीय महत्व
• व्याधि के विविध पहलुओं (हेतु, लक्षण, आदि) को देखकर ही सम्प्राप्ति की युक्ति लगाई जाती है।
(4) संख्या )
व्याख्या
संख्या स्याद् गणितम् । च.सू.26/32
गुषविद्वती
गणित की संख्या कहते हैं।
एकत्वादिव्यवहारहेतुः संख्या
। सा नवद्व्यवृत्तिः।
एकत्वादिपरार्धपर्यन्ता। संग्रह एक, दो, तीन आदि व्यवहार के हेतु को संख्या कहते हैं। नी कारण द्रव्यों में संख्या रहती है। संख्या एक से परार्च तक होती है। उदाहर- कास के 5 भेद हैं, श्वास के 5 भेद हैं, प्रमेह के 20 भेद हैं आदि। औषधी के मान का ज्ञान भी संख्या के आधार पर होता है।
(5) संयोग )
चरकसंहिता के अनुसार
योगः सह संयोग उच्यते ।
दृव्यानां द्वन्द्वसर्वैककर्मजोऽनित्य एव च।। च.सू. 26/32 यह संयोग तीन प्रकार का होता है (1) द्वन्द्वकर्मज (2) सर्वकर्मज और
(3) एककर्मज। ये तीनों संयोग अनित्य होते हैं। संयोग अनित्य होता है।
संयोग
एककर्मज
संयोगज संयोग अन्यतरकर्मज उभयकर्मज
इन्द्रकर्मज
सर्वकर्मज
(1) द्वन्द्वकर्मज संयोग – द्वन्द्वकर्मज संयोग वह संयोग है जिसमें दो द्रव्य आपस में मिलते हैं। इसमें दोनों दृव्य क्रियाशील होते हैं।
(2) सर्वकर्मज संयोग (union of more than two moving things) – सर्वकर्मज संयोग यह संयोग है जिसमें दो से अधिक दृश्य आपस में मिलते हैं। इसमें सभी दल्य क्रियाशील होते हैं।
उद्याहरण
(3) एककर्मज संयोग एककर्मज संयोग वह संयोग है जिसमें एक क्रियाशील द्रव्य अन्य क्रियाहीन द्रव्य से मिलता है।
कारिकावली ने संयोग के तीन भेद किये है (1) अन्यतरकर्मज, (2) उभयकर्मज और (3) संयोगज संयोग।
तर्कसंग्रह के अनुसार
संयुक्तव्यवहारहेतुसंयोगः सर्वद्रव्यवृत्तिः । तर्कसंग्रह संयुक्त व्यवहार (ये मिले हुए है, ऐसा व्यवहार) के हेतु को
संयोग कहा जाता है।
(6) विभाग (Disjunction)
व्याख्या
चरकसंहिता के अनुसार
विभागस्तु विभक्तिः स्याद्वियोगो भागशो ग्रहः।
-च.सू. 26/33 विभागमाह – विभागस्त्त्वित्यादि। विभक्तिः विभजनम्। विभक्तिमेव विवृणोति वियोग इतिः संयोगस्य विगमो वियोगः। तत् किं संयोगाभाव एव वियोग इत्याह भागशो ग्रह इति। विभागशो विभक्तत्वेन ग्रहणं यतो भवतीति भावः; तेन विभक्तिरित्येषा भावरूपा प्रतीतिः, न संयोगाभावमात्रं भवति, किंतर्हि भावरूपविभागगुणयुक्ता इत्यर्थ।
च.सू.26/33 विभाग के भी तीन प्रकार होते हैं (1) द्वन्द्वकर्मज, (2)
सर्वकर्मज और (3) एककर्मज।
द्वन्द्वकर्मज
(1) द्वन्द्वकर्मज विभाग (
उदाहरण
दो भेड़ों का आपस में अलग होना द्वन्द्वकर्मज विभाग हैं।
(2) सर्वकर्मज विभाग (
उदाहरण
सम्पूर्ण माष का परस्पर अलग होना।
(3) एककर्मज विभाग (
उदाहरण
स्थिर वृक्ष से कौए का उड़ जाना।
।
तर्कसंग्रह के अनुसार
संयोगनाशको गुणो विभागः। तर्कसंग्रह संयोग का नाश करने वाले गुण को विभाग कहते हैं।
(7) पृथक्त्व (Differentiation)
व्याख्या
चरकसंहिता के अनुसार
पृथक्त्वं स्यादसंयोगो वैलक्षण्यमनेकता। प.सू.
पृथक्त्व के तीन प्रकार होते हैं- अनेकता।
असंयोग
वैलक्षण्य
पृथक्त्व
(1) असंयोग पृथक्त्व (
(2) वैलक्षण्य पुचक (
(3) अनेकतारूप
(8) परिमाण (
व्याख्या
चरकसंहिता के अनुसार
परिमाणं पुनर्मानम्। च..26/34
मानं प्रस्थाढकादितुलादिमेयम्।
– च.सू.26/34 पर चक्रपाणि टोका मान को परिमाण कहा जाता है। प्रस्थ, आढक, तुला आदि व्यवहार को मान कहते हैं।
चरकसंहिता में मान के दो भेद हैं (1) कलिंगमान और (2) मागधमान।
तर्कसंग्रह के अनुसार
मानव्यवहारासाधारणकारणं परिमाणम्। गवटुव्यवृत्तिः
मान के चार भेद है (1) अणु (Minute), (2) दीर्घ (Long). (3) मार् (Gross) और (4) इग्य (Short)। मान के और तीन भेद किये गए है (1) पौतवमान , (2) दुवयमान (, (3) पाय्यमान () मान
कलिंग मागध
अणु दीर्घ महत्
पौतव दुवय
(9) संस्कार ()
व्याख्या
चरकसंहिता के अनुसार –
संस्कारः करणं मतम्। च.सू.26/34
प्रशस्तपाद के अनुसार
संस्कारस्त्रिविधः वेगो भावना स्थितिस्थापकश्च ।
प्रशस्तपाद
पाय्य
संस्कार के तीन भेद होते हैं (1) वेग 2) भावना (), (3) स्थितिस्थापकत्य )
वेग )
(10) अभ्यास (Practice)
व्याख्या
चरकसंहिता के अनुसार –
भावाभ्यसनमभ्यासः शीलनं सततक्रिया। च.सू. 26/34 किसी भाव पदार्थ का बार-बार पालन (ग्रहण) करना अभ्यास कहलाता है।
शीलन और सतत क्रिया अभ्यास के पर्याय हैं।
•
सार्थ गुण
गुण की एक व्याख्या इस प्रकार है कि, जिसके कारण लोक द्रव्य की ओर आकर्षित होते हैं, उसे गुण कहते हैं। दृष्यों के भौतिक मुष देखने योग्य एवं मापने योग्य होते हैं। इन गुणों को हम हमारी पाँच इन्द्रियों से जान सकते हैं। इन गुषों को हम सार्थ गुणों के अन्तर्गत मान सकते हैं। देखने योग्य भौतिक गुण हैं आकार (), रंग (), बनावट (), कठोरता (), अवस्था () आदि। मापने योग्य भौतिक गुण हैं – लंबाई ), भार (), तापमान (), आयतन (), मान ), गलनांक () आदि।
गुर्वादि गुण
गुर्वादि गुण शरीर से सम्बन्धित होने से इन्हें शारीर गुण भी कहा गया है। ये गुण शरीर को प्रभावित करते हैं।
आध्यात्मिक गुण
आत्मा से सम्बन्धित गुणों को आध्यात्मिक गुण कहते हैं।
परादि गुण
परादि गुणों को चिकित्सा सिद्धि के उपाय भी कहा जाता है।
*सामान्य का परिचय
• सामान्य की पदार्थ के रूप में स्वतन्त्र सत्ता न्याय और वैशेषिक दर्शन ने मानी है। इस मत को वस्तुवाद कहा जाता है। इन दर्शनों ने सामान्य को षड्पदार्थों में चौथा स्थान दिया है। सभी गायों में एक समान भाव है गोत्व या गायपन, जो गायों के मरते रहने पर भी हर नई उत्पन्न गाय में पाया जाता है। अनेक व्यक्तियों में एकरूप में पाया जाने वाला यह पदार्थ ‘सामान्य’ कहलाता है, जो नित्य है।
• व्यक्ति (गाय) से भिन्न केवल जाति (गोत्व) स्वतन्त्र दिखाई नहीं देती है। व्यक्ति (गाय) के ग्रहण के समय उसके शब्दरूप (‘गाय’) से अलग कुछ नही दिखाई देता। सामान्य के रूप में पदार्थ (गाय) का ग्रहण भ्रान्ति है जो चिरकाल से देखते रहने के अभ्यास से निर्माण हुई है। इसलिए सामान्य अरूप है, ऐसा बौद्ध दर्शन का मत है।
• चरक संहिता के षड् पदार्थों में सामान्य का प्रथम स्थान है। चरक संहिता चिकित्सा प्रधान ग्रंथ है। सामान्य और विशेष पदार्थ का चिकित्सा में महत्त्व होने से इन्हें षड् पदार्थों में क्रमशः प्रथम और द्वितीय स्थान दिया गया है। न्यून धातुओं की पूर्ति सामान्य गुण वाले द्रव्यों से और बढ़े हुए धातुओं का ह्रास विशेष से किया जाता है।
सामान्य के लक्षण (Lakshana of Samanya)
तर्कसंग्रह के अनुसार
• नित्यत्व – व्यक्तियों का जन्म होता है और मृत्यु भी होती है, परन्तु उनका सामान्य नित्य रहता है। उदाहरण – व्यक्ति के मृत्यु के पश्चात् भी उसका ‘मनुष्यत्व’ शाश्वत रहता है। सामान्य नित्य है, वह अनादि और अनन्त है।
• एकत्व – सामान्य एक होता है। एक जाति या वर्ग के सभी व्यक्तियों का एक ही सामान्य होता है। एक वर्ग के अलग-अलग व्यक्तियों का एक ही गुण समान होता है। जैसे गायों की गोत्व जाति होती है और मनुष्यों की मनुष्यत्व। यदि एक ही वर्ग के वस्तुओं में एक से अधिक सामान्य होते तो वे परस्पर विरोधी होते ।
सिद्धान्तमुक्तावली के अनुसार
• सामान्य के तीन लक्षण होते हैं (1) नित्य होना, (2) अनेकों में समाविष्ट रहना और (3) समवाय सम्बन्ध से रहना। इनमें से एक भी लक्षण न हो तो सामान्य का लक्षण दूषित हो जाएगा।
• यदि पहले लक्षण को छोड़ दें तो ‘अनेकों में समाविष्ट रहना’ और ‘समवाय सम्बन्ध से रहना’ ये दोनों लक्षण ‘संयोग’ में भी पाये जाते हैं। जब दो वस्तुओं का संयोग होता है, तब ‘संयोग’ यह लक्षण दोनों वस्तुओं में पाया जाता है।
• यदि तीसरा लक्षण छोड़ दिया जाए तो ‘नित्य होना’ और ‘अनेक में होना’ ये लक्षण ‘अत्यन्ताभाव’ में भी पाये जाते हैं।
चरक संहिता के अनुसार
• वृद्धि (बढ़ाना) के कारण को सामान्य कहते हैं।
• जो एकत्वकर (एक जैसा भाव निर्माण करना) बुद्धि को उत्पन्न
सामान्य के भेद (Types of Samanya)
(1) द्रव्य सामान्य
द्रव्य अपने समान द्रव्य की वृद्धि करता है, इसे द्रव्य सामान्य कहते हैं।
(2) गुण सामान्य
समान गुण वाले द्रव्य वृद्धि का कारण होते हैं।
(3) कर्म सामान्य
एक कार्य अपने समान कार्य की वृद्धि करता है।
• आचार्य चक्रपाणि ने एक अन्य मत का वर्णन किया है परन्तु इस पर सहमति नहीं दी है। इस मत के अनुसार सामान्य के तीन भेद हैं –
• अत्यन्त सामान्य • एक देश सामान्य
• मध्य सामान्य
तर्कसंग्रह के अनुसार सामान्य के भेद
(1) पर सामान्य
अधिक स्थान पर रहने वाले सामान्य को पर सामान्य कहते हैं।
(2) अपर सामान्य
अल्प स्थान पर रहने वाले सामान्य को अपर सामान्य कहते हैं।
#द्रव्य, गुण और कर्म के परिपेक्ष्य में सामान्य का महत्त्व
(Application of Samanya with reference to Dravya, Guna and Karma)
• आयुर्वेदीय चिकित्सा सिद्धान्त के अनुसार क्षीण धातुओं को बढ़ाना चाहिए, बढ़ी हुई धातुओं को कम करना चाहिए और सम धातुओं की साम्यावस्था को बनाएँ रखना चाहिए।
• यह चिकित्सा द्रव्य को देखकर, द्रव्य के गुणों को देखकर या कर्मों को देखकर की जाती है।
• द्रव्य सामान्य को आधार मानकर चिकित्सा –
• रक्त सेवन से रक्त की वृद्धि होती है।
•मेद के सेवन से मेद की वृद्धि होती है।
•तरूणास्थि के सेवन से अस्थि की वृद्धि होती है।
•आम गर्भ (अण्डा) के सेवन से गर्भ की पुष्टि होती है।
• गुण सामान्य को आधार मानकर चिकित्सा
•मूत्रक्षय में ईक्षुरस, वारूणीमण्ड, द्रव, मधुर, अम्ल, लवण रस और उपक्लेदी द्रव्य का प्रयोग।
• पुरीषक्षय में कुल्माष, माष, कुष्कुण्ड, बकरे के मध्य शरीर का मांस, यव, शाक, धान्याम्ल आदि का प्रयोग।
#विशेष का परिचय (Introduction to Vishesha)
• वैशेषिक दर्शन के अनुसार विशेष पाँचवा पदार्थ है। इस दर्शन के अनुसार यह एक महत्त्वपूर्ण पदार्थ है। कपिल मुनि ने अपने दर्शन को वैशेषिक नाम दिया है क्योंकि, इसमें मूल पदार्थों का जो परस्पर विशेष है, उसका वर्णन किया गया है। विशेष शब्द से ‘वैशेषिक’ शब्द बना है।
• विशेष पदार्थ का सर्वप्रथम वर्णन परमाणु के सिद्धान्त के सम्बन्ध में किया गया था, ऐसा प्रतीत होता है। एक परमाणु का दूसरे समान जातीय परमाणु से अन्तर ‘विशेष’ द्वारा ही बताया जाता है।
• चरक संहिता के षड् पदार्थों में विशेष का स्थान दूसरा है। सामान्य और विशेष पदार्थ का चिकित्सा में महत्त्व होने से इन्हें षड् पदार्थों में क्रमशः प्रथम और द्वितीय स्थान दिया गया है।
विशेष शब्द की निरूक्ति
‘विगतः शेषो यस्मात्’ से विशेष शब्द बना है, जिसका अर्थ विशिष्टतायुक्त अन्तर या अनोखा चिह्न है।
वस्तुओं में परस्पर भेद करणे वाले पदार्थ को विशेष कहते हैं।
विशेष के लक्षण (Lakshana of Vishesha)
तर्कसंग्रह के अनुसार
• नित्य द्रव्य में रहने वाले व्यावर्तकों (अपवर्जन करने वालें) को ‘विशेष’ कहते हैं।
• उदाहरण – एक पृथ्वी परमाणु को दूसरे पृथ्वी परमाणु से पृथक् करने वाले पदार्थ को विशेष कहा गया है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार
•सामान्य और विशेष के ज्ञान में बुद्धि की अपेक्षा होती है।
• संसार की सभी वस्तुएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु भिन्न होते हुए भी इनमें कुछ समानता भी दिखती है। जैसे सारी गायों में समानता होती है, जिससे वे एक प्रतीत होती है और घोड़ा, गधा आदि से भिन्न प्रतीत होती है। इस समानता को ‘सामान्य’ या ‘जाति’ कहते हैं। इस समानता को दर्शाने के लिए संस्कृत में ‘त्व’ और हिन्दी में ‘पन’ लगाया जाता है।
विशेष के भेद (Types of Vishesha)
चरकसंहिता के अनुसार विशेष के भेद
• द्रव्य विशेष •गुण विशेष • कर्म विशेष
(1) द्रव्य विशेष
जब बढ़ें हुए द्रव्य/विषय को घटाने के लिए अन्य द्रव्य का प्रयोग किया जाता है, तब उसे द्रव्य विशेष कहते हैं।
उदाहरण – शरीर में मांस की वृद्धि होने पर अस्थि (शंख, शौक्तिक, कपर्दिक आदि भस्मों) का प्रयोग किया जाता है।
(2) गुण विशेष
जब गुण के आधार पर किसी द्रव्य/विषय को घटाया जाता है, तब उसे गुण विशेष कहते हैं।
उदाहरण – शरीर में वात की वृद्धि होने पर तैल का प्रयोग करना। वात रूक्ष, लघु, शीत होता है और तैल इसके विपरीत स्निग्ध, गुरू और उष्ण होता है।
(3) कर्म विशेष
जब कर्म के आधार पर किसी द्रव्य/विषय को घटाया जाता है, तब उसे कर्म विशेष कहते हैं।
उदाहरण – शरीर में कफ की वृद्धि होने पर व्यायामादि कर्म कराया जाता है।
आचार्य चक्रपाणि के अनुसार विशेष के भेद
• विरूद्ध विशेष • अविरूद्ध विशेष