Understanding the Importance of Language and Communication
· प्रमाण शब्द की निरूक्ति : ‘प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्।’
· प्रमाण की व्याख्या :
‘अर्थोपलब्धिर्हेतु: प्रमाणम्।
· परीक्षा की व्याख्या : ‘परीक्ष्यते व्यवस्थाप्यते वस्तुस्वरूपमनयेति परीक्षा प्रमाणम्।’
· प्रमा :
‘यदर्थविज्ञानं सा प्रमा।’
· प्रमेय :
‘योऽर्थः प्रमीयते तत्प्रमेयम्।’
· प्रमाता :
जिसे ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे प्रमाता कहते हैं।
आप्तोपदेश के लक्षण:
‘तत्राप्तोपदेशो नाम आप्तवचनम्।’
आप्त के लक्षण :
आप्ता: शिष्टा विबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम्।
‘आप्तोपदेश के भेद :
(1) लौकिक आप्तोपदेश (2) अलौकिक आप्तोपदेश
• शब्द के भेद :
1. दृष्टार्थ (Obvious) 2. अदृष्टार्थ( not evident to the sense) 3. सत्य(truth) 4. अनृत(untruth)
• शब्दवृत्ति/वाक्यवृत्ति :
1. अभिधा(Literal meaning) 2. लक्षणा(2nd meaning) 3. व्यंजना(3rd meaning) 4. तात्पर्याख्या(Ref. To obj.)
• शक्तिग्रह :
1. व्याकरण(Gramer) 2. उपमान(comparition) 3. कोष(dictionary) 4. आप्तवाक्य(authoer statment) 5. व्यवहार(manner) 6. वाक्यशेष(speech remainder) 7. विवृति(interpretation) 8. सान्निध्य(presence of known word)।
• वाक्यार्थज्ञान हेतु :
1. आकांक्षा 2. योग्यता 3. सन्निधि
प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां सन्निकर्षात् प्रवर्तते। व्यक्ता तदात्वे या बुद्धिः प्रत्यक्षं सा निरूच्यते।
प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद
• निर्विकल्पक(indeterminate) • सविकल्पक(determinate) –
• लौकिक • बाह्य : इन्द्रिय प्रत्यक्ष • आभ्यन्तर : मानस प्रत्यक्ष
• अलौकिक • सामान्य लक्षण • ज्ञान लक्षण • योगज : युक्त, युंजान
प्रत्यक्ष अनुपलब्धिकारण :
अतिसन्निकर्षात्(too close),
अतिविप्रकर्षात्,( too near) आवरणात्,(cover)
करणदौर्बल्यात्(weak sense), मनोऽनवस्थानात्(attention of
mind), समानाभिहारात्(similar obj.),
अभिभवात्(presence of large obj.), अतिसौक्ष्म्यात्(too small) ।
इन्द्रियार्थसन्निकर्ष :
संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेत-समवाय, समवाय, समवेतसमवाय, विशेषण-विशेष्यभाव।
• त्रयोदश करण :
1. कर्ण, 2. त्वचा, 3. नेत्र, 4. जिव्हा, 5. घ्राण, 6. वाक्, 7. पाणि, 8. पाद, 9. पायु, 10. उपस्थ, 11. महान् (बुद्धितत्व), 12. अहंकार और 13. मन।
अनुमान प्रमाण के लक्षण:
‘अनुमानं खलु तर्को युक्त्यपेक्षः।’
• हेतु :
जिस साधन से साध्य सिद्ध करना है। (धूम)
साध्य :
हेतु की सहायता से जिसे सिद्ध किया जाता है। (अग्नि)
व्याप्ति :
हेतु और साध्य का साहचर्य नियम। (जहाँ जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अग्नि है।)
व्याप्ति के भेद :
• अन्वय व्याप्ति :
जो दों वस्तुओं में मेल के आधार पर
प्रस्थापित की जाती है।
• व्यतिरेक व्याप्ति:
जो दों वस्तुओं के अभाव में मेल के
आधार पर प्रस्थापित की जाती है।
पक्ष :
संदिग्ध साध्यवान पक्षः। (पर्वत)
• सपक्ष :
निश्चित साध्यवान् सपक्षः । (रसोईघर)
• विपक्ष :
निश्चित साध्य अभाववान् विपक्षः । (जलाशय)
परामर्श :
व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मताज्ञानं परामर्शः।
• अनुमिति:
परामर्शजन्यं ज्ञानं अनुमितिः।
दृष्टान्त :
दृष्टान्तो नाम यत्र मूर्खविदुषां बुद्धिसाम्यं, यो वर्ण्य वर्णयति। (रसोईघर)
अनुमान प्रमाण के भेद
तर्क संग्रहः • स्वार्थानुमान • परार्थानुमान
(पंचावयव : प्रतिज्ञा,(hypothesis) हेतु(reason), उदाहरण(example),
उपनय(justification), निगमन(conclusion))
न्याय • पूर्ववत • शेषवत • वर्तमानकालिन
चरक–
• भूतकालिन • सामान्यतोदृष्ट • भविष्यकालिन
• हेतु के भेद :
• सद् हेतु, • असद् हेतु
• सद् हेतु के गुण-
• पक्षे सत्वम्, • सपक्षे सत्वम्, • विपक्षे असत्वम्, • अबाधित विषयत्वम्, • असत्प्रतिपक्षत्वम्
• हेत्वाभास के प्रकार तर्क संग्रह के अनुसार-
• सव्यभिचार : साधारण, असाधारण, अनुपसंहारी
• विरूद्ध • सत्प्रतिपक्ष
• असिद्ध : आश्रय असिद्ध, स्वरूप असिद्ध, व्याप्यत्व असिद्ध
• बाधित
चरक संहिता के अनुसार-
• प्रकरणसम • वर्ण्यसम • संशयसम
• तर्क के भेद-
• प्रमाण बाधित • चक्रकाश्रय • आत्माश्रय • अनावस्था • अन्योन्याश्रय
युक्ति प्रमाण के लक्षण :
बुद्धि: पश्यति या भावान् बहुकारणयोगजान्। युक्तिस्त्रिकाला सा ज्ञेया त्रिवर्गः साध्यते यया।।
• उपमान शब्द की व्युत्पत्ति-
उपमीयते अनेनेति उपमानम् ।
• उपमान प्रमाण के लक्षण–
औपम्यं नाम यदन्येनान्यस्य सादृश्यमधिकृत्य प्रकाशनम् ।
• उपमान प्रमाण के भेद :
• साधर्म्य उपमान(similarity) • वैधर्म्य उपमान(dissimilarity) • धर्ममात्र उपमान
कारण के तीन भेद : • समवायिकारण (intimate cause) · निमित्तकारण(instrumental) · असमवायिकारण(non-intimate
सत्कार्यवाद-
सांख्य दर्शन
कार्य के कारण से उत्पन्न होने से पूर्व कार्य का अस्तित्व कारण में रहता है।
असत्कार्य-
न्याय एवं वैशेषिक
कार्य के कारण से उत्पन्न होने से पूर्व कार्य का अस्तित्व कारण में नहीं रहता है। कार्य एक सर्वथा नवीन रचना है, उत्पत्ति से पहले इसका कोई अस्तित्व नहीं होता।
परिणाम-
सांख्य
जब कारण कार्य में परिवर्तित होता है, अर्थात् एक वस्तु अपने मूलरूप को त्याग कर नये रूप को धारण करती है, तो वह परिवर्तित रूप उस मूल रूप का परिणाम होता है।
विवर्तवाद-वेदान्त- कारण का कार्य रूप में परिवर्तित होना एक आभासमात्र है। केवल ब्रह्म सत्य है।
आरम्भवाद-
न्याय एवं वैशेषिक
कार्य अविद्यमान होते हुए भी उसे उत्पन्न (आरम्भ) किया जाता है, इसलिए इस सिद्धान्त को आरम्भवाद कहा जाता है। असत्कार्यवाद को ही आरम्भवाद कहा जाता है।
परमाणुवाद-
वैशेषिक
परमाणुओं के संयोग और विभाग से वस्तुओं (कार्यों) की क्रमशः उत्पत्ति और विनाश होता है।
क्षणभंगुर-
बौद्ध दर्शन
कार्य-कारण की श्रृंखला एक सतत गतिशील प्रवाह है। वस्तु की एक क्षण में उत्पत्ति, दूसरे क्षण में स्थिति और तीसरे क्षण में लय या विनाश हो जाता है।
स्वभाववाद-
चार्वाक
स्वभाववाद कारण का प्रतिरोध नहीं करता, फिर भी वस्तुओं में होनेवाले परिवर्तनों को वस्तुओं के ही स्वभावाधीन मानता है।
पीलुपाक –
वैशेषिक
परमाणुओं में पाकज परिवर्तन को पीलुपाक कहते हैं।
पिठरपाक-
न्याय दर्शन
सम्पूर्ण अवयवी में परिवर्तन आता है, अवयव (परमाणु) में नहीं।
अनेकान्त-
जैन दर्शन- किसी भी वस्तु या विषय के सम्पूर्ण धर्मों का जब तक ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक उस वस्तु या विषय के सन्दर्भ में हमारी धारणा गलत ही होगी।
स्वभावोपरमवाद-
चरक
किसी भी भाव के उत्पत्ति में कारण होता है, परन्तु उसके विनाश में कोई कारण नहीं होता।